‘राम राम ताऊ!’
‘जय राम जी की भाई!’
ये वो संबोधन या अभिवादन हैं जिन्हें सुनते सुनते बड़े हुए. आज अचानक पता चला कि ये तो सांप्रदायिक संबोधन हैं. क्योंकि इनमें राम का नाम आता है.
राम कुमार, राम सिंह, राम लाल, रामाधीर, रामदीन, रामेश्वर, रामेंद्र, रमेश…पता नहीं ऐसे कितने दोस्त हुए, जिनके नाम में ही राम सम्मिलित हैं. कभी ये खयाल नहीं आया कि ये सेकुलर हैं या सांप्रदायिक? आज अचानक पता चला कि ये सांप्रदायिक लोग थे.
हैरानी है कि राजनीतिक पार्टियों के पास क्या कोई मुददा नहीं है? प्रधानमंत्री ने जय श्री राम क्यों बोला? विजयदशमी का दिन. रावण पर राम की जीत के जश्न का मौका.जय श्री राम न बोलते तो क्या बोलते? नारा ए तकबीर?
प्रधानमंत्री का पद संवैधानिक पद है. लिहाज़ा उस पर बैठे व्यक्ति को सेक्युलर होना चाहिए. ये तर्क जायज़ है. लेकिन सेक्युलर का मतलब क्या है? सब धर्मों को उनका अधिकार देने वाला या अपना धर्म मानना छोड़ देने वाला – कौन सेक्युलर है?
सेक्युलरिज़्म इस देश का सबसे पिटा हुआ शब्द है, जिसे राजनीतिक पार्टियों ने अपने फायदे के लिए बेतहाशा घिसा है और इसकी आड़ में वोट बैंक साधे हैं.
क्या सांसद होना संवैधानिक ज़िम्मेदारी के तहत नहीं आता? अगर ऐसा है तो फिर सारे सांसदों को धार्मिक पहचान वाले कपड़े पहनना छोड़ देना चाहिए. कर दीजिए संसद का ड्रेस कोड. न किसी की मूंछ के बगैर दाढ़ी होगी, न कोई सिर पर साफा या पगड़ी बांध के आएगा, न भगवा पहन कर, न गले में क्रॉस या ओम या इक ओमकार का प्रतीक चिन्ह लटका कर.
लेकिन जहां वोट ही धर्म के नाम पर मांगे जाते हों, वहां कर पाएंगे ऐसा ? तो फिर देश के किसी नागरिक से उसकी धार्मिक पहचान क्यों छीनना चाहते हैं ये कह कर कि जय श्री राम बोलना सांप्रदायिक है. रमज़ान के महीने में इफ्तार पार्टियां दे कर राजनीतिक पार्टियां सेक्युलर बनी रह सकती हैं, लेकिन रामलीला में जय श्री राम बोल के रावण पर तीर चलाते ही प्रधानमंत्री सांप्रदायिक हो जाते हैं?
जब देश के संविधान ने हर नागरिक को अपना धर्म मानने की छूट दी है, तो नरेंद्र मोदी को भी दी होगी? अगर नहीं दी है, तो किसी भी चुने हुए प्रतिनिधि, सरकारी अधिकारी, अफसर, बाबू, नेता को अपना धर्म मानने की छूट नहीं होनी चाहिए – क्योंकि वो सब जनसेवा के लिए हैं, और सांप्रदायिक हो कर निष्पक्ष जन सेवा नहीं हो सकती!